इतिहास
काल को चूर चूर करने वाले प्रतापी राजा के वंश कलचुरी कहलाये। सहस्त्रार्जुन जी के छः पीढ़ी बाद बलभद्र यानी बलराम का जन्म हुआ जो कि कृष्णा भगवान के अग्रज थे । आज भी देश के कई जगह जगनाथ मंदिर जहां भी है । उसमें बलभद्र सुभद्रा और कृष्णा की प्रतिमाये स्थापित हैं।
कलचुरी हमारा वंश है और वैष्य या क्षत्रिय वर्ण है। वर्ण की बात करें तो हम कल क्षत्रिय थे पर आज कल के क्षत्रिय कर्म के आधार पर वैश्य हो गए।
हमारी मूल जाति गवर्मेंट रिकॉर्ड में कलवार, कलाल, कलार दर्ज है जो हमारी मुलजाति है जो अलग अलग क्षेत्रो में अलग अलग नाम से कहीं कलवार कहीं कलाल कहीं कलार नाम से प्रचलित है लेकिन तीनों ही एक दूसरे के अपभ्रंश हैं।
भगवान सहस्त्रार्जुन
सहस्रार्जुन की कथाएं, महाभारत एवं वेदों के साथ सभी पुराणों में प्राय: पाई जाती हैं। चंद्रवंशी क्षत्रियों में सर्वश्रेठ हैहयवंश एक उच्च कुल के क्षत्रिय हैं। महाराज कार्तवीर्य अर्जुन(सहस्रार्जुन) जी का जन्म कार्तिक मास में शुक्ल पक्ष की सप्तमी तिथि को श्रावण नक्षत्र में प्रात: काल के मुहूर्त में हुआ था। वह भगवान विष्णु और माता लक्ष्मी के द्वारा जन्म कथा का वर्णन भागवत पुराण में लिखा है। अत: सभी अवतारों के भांति वह भी भगवान विष्णु के चौबीसवें अवतार माने गए हैं, इनके नाम से भी पुराण संग्रह में सहस्रार्जुन पुराण के तीन भाग हैं।
सहस्रार्जुन जन्म कथा
वैवस्वतश्च तत्रपि यदा तु मनुरूतम:।
भविश्यति च तत्रैव पन्चविशतिमं यदा॥
कृतं नामयुगं तत्र हैहयान्वयवडॅ. न:।
भवता नृपतिविर्र: कृतवीर्य: प्रतापवान॥
मत्स्य पुराण में वर्णित उपरोक्त लोक का अर्थ है कि पचीसवें कृत युग के आरम्भ में हैहय कुल में एक प्रतापी राजा कार्तवीर्य राजा होगा जो सातो द्रवीपों और समस्त भूमंडल का परिपालन करेगा। स्मृति पुराण शास्त्र के अनुसार कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी, जो कि हिन्दी माह के कार्तिक महीने में सातवें दिन पड़ता है, दीपावली के ठीक बाद हर वर्ष मनाया जाता है। महिष्मति महाकाव्य के निम्न लोक के अनुसार यह चन्द्रवंश के महाराजा कृतवीर्य के पुत्र कार्तवीर्य-अर्जुन – हैहयवंश शाखा के 36 राजकुलों में से एक कुल से संबद्घ मानी जाती है। उक्त सभी राजकुलों में – हैहयवंश-कुल के राजवंश के कुलश्रेष्ठ राजा श्री राज राजेश्वर सहस्त्रवाहु अर्जुन समस्त सम-कालीन वंशों में सर्वश्रेष्ठ, सौर्यवान, परिश्रमी, निर्भीक और प्रजा के पालक के रूप की जाती है। यह भी धारणा मानी जाती है कि इस कुल वंश ने सबसे ज्यादा 12000 से अधिक वर्षो तक सफलता पूर्वक शासन किया था। श्री राज राजेश्वर सहस्त्रबाहु अर्जुन का जन्म महाराज हैहय के दसवीं पीढ़ी में माता पदमिनी के गर्भ से हुआ था, राजा कृतवीर्य के संतान होने के कारण ही इन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और भगवान दत्तात्रेय के भक्त होने के नाते उनकी तपस्या कर मांगे गए सहस्त्र बाहु भुजाओं के बल के वरदान के कारन उन्हें सहस्त्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है।
पूजा विधि
सहस्रार्जुन विष्णु के चौबीसवें अवतार हैं, इसलिए उन्हें उपास्य देवता मानकर पूजा जाता है। कार्तिक शुक्ल पक्ष की सप्तमी की सहस्रार्जुन जयंती एक पर्व और उत्सव के रूप में मनाई जाती है। हिंदू धर्म संस्कृति और पूजा-पाठ के अनुसार स्नानादि से निवृत हो कर ब्रत का संकल्प करें और दिन में उपवास अथवा फलाहार कर शाम में सहस्रार्जुन का हवन-पूजन करे तथा उनकी कथा सुनें।
पुराण में कथा-वर्णन
श्रीमद भागवत पुराण के अनुसार चंद्रवंशीय क्षत्रिय शाखा में महाराज ययाति से श्री राज राजेश्वर सहस्रबाहु का इतिहास प्रारंभ होता है, महाराज ययाति की दो रानियाँ देवयानी व शर्मिष्ठा से पांच पुत्र उत्पन्न हुए इसमें तुवेशुं सबसे पितृ भक्त पुत्र थे। इन्हीं के वंश में कृतवीर्य तथा उनके पुत्र के रूप में कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुए कृतवीर्य के पुत्र होने के नाते ही उन्हें कार्तवीर्य अर्जुन और सहस्रबांहों (भुजाओं) का बल का आशीर्वाद पाने के कारण सहस्रबाहु अर्जुन भी कहा जाता है। हरिवंश पुराण, वायु पुराण, मत्स्य पुराण, कालिका पुराण, पदम पुराण में हैहयवंश और महिष्मति संबंधी रोचक विवरण पढ़ने को मिल सकती है जिसके अनुसार यदुवंश (भगवान कृष्ण के अवतार) के समकालीन शाखा ययाति वंश में हैहय वंश का प्रादुर्भाव देखने को मिलता है। हरिवंश पुराण (अध्याय 38), वायु पुराण (अध्याय 2 व 32) तथा मत्स्य पुराण (अध्याय 42) में वर्णित है। इसी में कुछ ग्रंथों के अनुसार कंकोतक नाम वंशजों के साथ हैहय राजा कार्तवीर्य, सहस्रार्जुन या सहस्रर्बाहु ने युद्ध में जीत कर अपनी अधिपत्य में स्थापित करने का उल्लेख मिलता है। ययाति के वंशज को चन्द्रवंश शाखा का उदय माना जाता है, ययाति की दो रानियाँ थी। प्रथम भार्गव ऋषि शुक उषमा की पुत्री देवयानी और द्वितीय दैत्यराज वृष पर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा। देवयानी से यदु और तुर्वस राजवंश तथा शर्मिष्ठा से दुह, अनु और पुरू नाम के पाँच पुत्र हुये। ययाति ने अपने राज्य को पाँक पुत्रों में बाँट दिया जिस कारण ययाति से पाँच राजवंशों का उदय हुआ। यदु से यादव राजवंश, तुर्वसु से तुर्वस राजवंश, दुह से दुह, अनु से आनव और पुरू से पौरव राजवंश का विस्तार हुआ। ययाति ने अपने ज्येष्ठ पुत्र यदु को चंबल-वेतवा और केन नदियों का मध्यवर्ती राज्य दिया। महाराज यदु के पाँच पुत्र हुये जिनमें सहसतजित, क्रोंत प्रमुख थे। यदु वंश के समकालीन तुर्वस राजवंश के अंतर्गत राजा तुर्वस के तीन पुत्र हुए जिसमें हैहय, हय और वेनुहय हुए, जिसमें हैहय के नाम से ही हैहयवंश का विस्तार हुआ और हैहयवंश की शाखा जाना जाता है। हैहयवंश के विस्तार में राजा साहज्ज के वंश के विस्तार में, राजा कनक के चार सुविख्यात पुत्र कृतवीर्य, कृतौजा, कृतवर्मा और कृताग्नि हुये, जो समस्त विश्व में विख्यात थे। राजा कनक के ज्येष्ठ पुत्र कृतवीर्य उनके पश्चात् राज्य के उत्तराधिकारी बने। वे पुण्यवान प्रतापी राजा थे और अपने समकालीन राजाओं में वे सर्वश्रेष्ठ राजा माने जाते थे। इनकी रानी का नाम कौशिका था। महाराज कृतवीर्य से कार्तवीर्य अर्जुन उत्पन्न हुये। इन्हें सहस्रार्जुन के नाम से भी जाना जाता है। पौराणिक ग्रंथों में कार्तवीर्य अर्जुन के अनेक नाम अंकित है जैसे सहस्रार्जुन, कृतवीर्यनन्दन, राजेश्वर, हैहयाधिपति, दषग्रीविजयी, सुदशेन, चक्रावतार, सप्तद्रवीपाधि आदि। महाराज कार्तवीर्यार्जुन जी के राज्याभिषेक में स्वयं दत्तात्रेय जी एवं ब्रह्मा जी पधारें। राजसिंहासन पर बैठते ही उन्होंने घोषणा कर दी कि मेरे अतिरिक्त कोई भी शस्त्र-अस्त्र धारण नहीं करेगा। वे अकेले ही सब प्रकार से अपनी प्रजा का पालन और रक्षा करते थे। युद्ध दान धर्म दया एवं वीरता में उनके समान कोई नहीं था।
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